divided verdict on hijab
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Hijab: हिजाब पर बंटा हुआ फैसला

Editorial

divided verdict on hijab

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक के शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध मामले की सुनवाई पर बंटा हुआ फैसला आने पर हैरानी नहीं होनी चाहिए। यह मामला काफी संवेदनशील है और इसमें प्रत्येक की अपनी-अपनी राय हो सकती है। अदालत में बैठे न्यायाधीशों के लिए भी यह आवश्यक नहीं है कि वे एक राय के साथ चलेंगे और ऐसा फैसला देंगे जोकि किसी एक पक्ष के लिए विजय रूपी होगा। हिजाब मामले में देशभर में चर्चा चल रही है, एक पक्ष इसे धार्मिक चिन्ह बताते हुए इस पर प्रतिबंध की मांग कर रहा है वहीं दूसरे पक्ष का दावा है कि दूसरे धर्मों में भी ऐसे प्रतीक चिन्ह इस्तेमाल हो रहे हैं, लेकिन वहां पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा रहा। यह वाकई में विचारणीय है कि आखिर किस प्रकार एक धर्म या सांस्कृतिक पहचान को किसी से दूर किया जा सकता है और यह भी सोचने की बात है कि आखिर कैसे हिजाब पहनना नियमों का उल्लंघन हो सकता है। इस मामले में एक जज का कहना है कि धर्मनिरपेक्षता सभी नागरिकों पर लागू होती है और इसलिए एक समुदाय को धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करने की अनुमति देना धर्मनिरपेक्षता के प्रतिकूल होगा। इस मामले में राज्य सरकार का आदेश समानता का माहौल बनाने के लिए जारी किया गया।  वहीं अन्य न्यायाधीश की ओर से कहा गया कि किसी धार्मिक मुद्दे पर हमेशा एक से अधिक दृष्टिकोण होंगे। कोर्ट को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि वह एक विचार को स्वीकार कर ले और दूसरे को छोड़ दे।

 जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धुलिया के इस बंटे हुए फैसले के बाद अब अंतिम निर्णय के लिए यह मामला चीफ जस्टिस यूयू ललित के पास भेजा गया है, जोकि अब इस पर सुनवाई के लिए बड़ी बेंच का गठन करेंगे। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का मतलब है कि जब तक ये अदालत अपना फैसला नहीं सुनाती, कर्नाटक हाई कोर्ट का फैसला मान्य रहेगा। यानी जब तक सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच इस पर निर्णय नहीं करती, तब तक स्कूल-कॉलेज में हिजाब न पहनने की यथास्थिति बनी रहेगी। गौरतलब है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 23 याचिकाकर्ताओं के वकीलों और कर्नाटक सरकार की दलीलें सुनने के बाद अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था. दस दिन तक इस मामले पर सुनवाई चली थी। कर्नाटक सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया था कि उसके पास शैक्षणिक संस्थानों के लिए स्कूल यूनिफॉर्म तय करने और अनुशासन का पालन करने का आदेश जारी करने का अधिकार है।

याचिकाकर्ता छात्रों की ओर से तर्क दिया गया कि मौलिक अधिकार यानी क्या पहनना है, ये चुनने की स्वतंत्रता और आस्था की स्वतंत्रता, एक क्लास के भीतर कम नहीं हो जाते। छात्रों का कोर्ट में पक्ष रख रहे अधिवक्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि कर्नाटक सरकार ने अपने दावे का समर्थन करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया। वकीलों का कहना था कि राज्य सरकार ये नहीं बता पाई कि कैसे कुछ छात्रों के कक्षाओं में यूनिफॉर्म के साथ हिजाब पहनने से सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता का उल्लंघन हुआ? इससे पहले कर्नाटक हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस रितु राज अवस्थी, जस्टिस कृष्णा दीक्षित और जस्टिस जे एम खाजी की बेंच ने इस साल 15 मार्च को अपने फैसले में कहा था कि महिलाओं का हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य प्रथा नहीं है। इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक मान्यताओं को मानने की आजादी) के तहत नहीं आता। कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा था कि स्कूल की यूनिफॉर्म एक उचित व्यवस्था है जो संविधान सम्मत है। इस पर छात्र आपत्ति नहीं कर सकते हैं। साथ ही राज्य सरकार के पास ऐसी अधिसूचना जारी करने की शक्ति है और सरकारी अधिसूचना के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता।
 

बेशक, वैचारिक हिंसा नहीं होने देनी चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक के धर्म और उसके जीवन जीने के अधिकार का सम्मान होना चाहिए। लेकिन यह जरूरी है कि गैर जरूरी बातों पर अब बहस हो और उन्हें सुधारा जाए। गुरुग्राम में सार्वजनिक स्थानों पर नमाज पढऩे का विरोध हुआ है, इसके जवाब में कहा गया कि यह धार्मिक आजादी को छीनने की कोशिश है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सार्वजनिक स्थल किसी एक धर्म के लिए आरक्षित हैं। बेशक पूजा और आराधना से नहीं रोका जा सकता, लेकिन किसी स्थल का सांप्रदायिक करण उचित नहीं है। वैसे यह बहस शायद ही खत्म हो। एक वर्ग खुद को पीडि़त साबित करने में जुटा है, हालांकि राजनीतिक चश्मे से देखने वाले इसे एक वर्ग की जीत बता रहे हैं। कनार्टक और देश में विभिन्न बातें सुनी जा रही हैं। अब देश को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की ओर से आने वाले फैसले का इंतजार रहेगा।

यह मामला वाकई में बहुत पेचीदा है, लेकिन इसे अगर पूरी संवेदनशीलता के साथ नहीं समझा गया तो यह हमेशा कांटे की भांति किसी एक पक्ष के हृदय में चुभता रहेगा। सवाल यह भी है कि आखिर शैक्षणिक संस्थानों में भी धार्मिक प्रतीक चिन्ह क्यों स्वीकार्य होने चाहिए। अगर ऐसा होता है तो फिर ड्रेस कोड का क्या मतलब होगा। मुस्लिम धर्म से संबंधित छात्राओं की हिजाब पहनने की जिद उनकी शिक्षा को भी प्रभावित कर रही है। कितनी ही छात्राएं हैं, जिन्होंने स्कूल, कॉलेज जाने से बंद कर दिया, परीक्षाएं देने से इनकार कर दिया।

जब भी वे हिजाब पहन कर शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश करती हैं, उन्हें दरवाजे पर ही रोक दिया जाता है। अब सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने इसे अपनी टिप्पणी में शामिल किया है, उन्होंने राज्य सरकार से ही पूछा है कि एक बालिका की शिक्षा ज्यादा अहम है, या फिर ड्रेस कोड। इस टिप्पणी पर बात की जा सकती है, बेशक बालिकाओं का भविष्य महत्वपूर्ण है, लेकिन अगर राज्य सरकार ड्रेस कोड लागू करके अनुशासन कायम करना चाहती है तो फिर यह भी किस प्रकार गलत हो सकता है। अगर हर कोई अपनी मर्जी से करेगा तो फिर शासन, सरकार जैसी व्यवस्था रहेगी ही नहीं। कानून तब रहेगा ही नहीं। एक संस्थान में ड्रेस कोड इसलिए ही लागू की जाती है ताकि सभी समान रहें, लेकिन अगर किसी को धार्मिक प्रतीक चिन्ह पहनने की आजादी होगी और किसी को नहीं तो यह मामला विवादित होगा ही। वैसे अगर कहीं पर ड्रेस कोड लागू नहीं है, तब वहां पर ऐसी कोई बाध्यता रहती भी नहीं है।